Thursday, July 22, 2010

कम

ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

उम्र ने खर्च कर दिया मुझे
थोड़ी सी लापरवाह निकली
मुश्किलों के लिए थोडा सा अब बचा रखा है
आधी ख़ुशी,
आधे से ज्यादा ग़म हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

मन में हाथ डाल कर,
मुट्ठियाँ भर भर कर जज़्बात ज़ब्त कर लिए
पहले नौ सौ इकहत्तर थे,
अब काट कर तीन सौ सोलह रब्त कर दिए
तीन महीने नहीं,
अब एक साल में बदलने वाला मौसम हो गया हूँ मैं ।
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

आंसू अब आसानी से नहीं आते,
रातों को हकबका के नहीं उठता मैं
हालात के आगे आसानी से, अब नहीं झुकता मैं
ख्वाब दिन भर आँखों से नहीं जाते
ज़ख्मों की दुहाई तो पहले भी नहीं देता था,
अब उनका मरहम हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

थोडा थोडा कर यूँ भी मर जाना है
अब शुरुआत हो चली है
इस से आगे की अब सूनसान सी गली है
उसी से हो कर अब, अपने घर जाना है
अंधेरों से इस बार थोडा सा डर जाना है
इस बार थोडा सा बिखर जाना है
कुछ हिस्सों में यूँ भी ख़तम हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं

अपनी नज़र से देखता है ज़माना हर कोई,
मुझे अब हर चीज़ में कमी दिखती है
जैसा मैं, वैसी ही नज़र होगी मेरी,
इसी लिए अब ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं

पूरा अब फिर शायद हो न पाऊँ,
मिल न सकूं आँखों को,
पर खो न पाऊँ,
हर बार एक नयी कमी दिखेगी मुझ में
हर बार कुछ अलग नज़र आएगा
फिर मुझ में पुराना कुछ तलाशेगा हर कोई
फिर उम्मीद पूरी रखेगा हर कोई ,
पर उम्र ने खर्च कर दिया है मुझे,
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

1 comment:

Garima said...

beautiful! what layering! really, der aaye durust aaye...clearly one of your best 'ever'. very very beautiful this one is. like, every time one would read it, they would find something more, something different. koi 'kamii' nahin hai at least is poem mein :-)