हर शेहर किताब सा लगता है
स्याही दर्ज है पन्नों पर ।
नुक्कड़ों पर अंक लिखे हैं,
इंसान अक्षर बन बिखरे पड़े रहते हैं,
जो बोलें वो, शेहर वही कहते हैं,
आज एक काग़ज़ लगा कर यहीं तक बंद कर दिया,
फिर आऊँगा तो नए पन्ने जुड़े होंगे शायद ।
Friday, March 26, 2010
Friday, March 5, 2010
सच है
मैं तो मर ही गया था ।
बस एक सांस कहीं से खींच ली,
फिर ज़िन्दगी सींच ली,
ठंडी नीली उँगलियाँ,
नाखून, ना-खून से हो गए थे,
पुतलियाँ नंगी थी, पलकें सिकुड़ गयीं थी,
पर दीखता कुछ न था,
अँधेरा घना सा था,
दांत खडीच लिए थे,
पैर की उँगलियों के सिरे झुक गए थे,
धड़कन के अंदेशे रुक गए थे,
मरने का खौफ़ खुद भी डर ही गया था
मैं तो मर ही गया था ।
बातों को अधूरा छोड़,
बस यादों का चूरा छोड़,
कुछ किताबों को मेज़ पर पड़ा छोड़,
सपनों को हकीकत की देहलीज़ पर खड़ा छोड़,
गाड़ी की चाबी गाड़ी में लगी हुई थी,
कलम, शायद बिना ढक्कन के खुली किताब में पड़ी हुई थी,
शाम की ट्रेन का टिकेट बटुए में रखा था शायद,
इस खून का रंग गुलाल से पक्का है शायद
सोचा नहीं था, तैयार नहीं था,
इसी लिए थोडा, डर ही गया था
मैं तो मर ही गया था ।
पर एक सांस शायद बची थी मेरे नाम की,
हर सांस से ज्यादा वही निकली सबसे ज़्यादा काम की
अब कुछ नहीं बदलेगा,
आँखें खुल जायेंगी
रिश्ते निभ जायेंगे
पर बच नहीं पाऊँगा मैं,
भाग नहीं पाऊँगा,
लोगों को नीचा दिखाना चाहूँगा,
फिर कसौटी पर खरा उतरना चाहूँगा,
कुछ कर गुज़रना चाहूँगा,
लड़ - लड़ के छीनी है एक सांस,
उसे जिस्म में भर कर,
उम्र भर चलाना चाहूँगा,
ये पल मेरे तो थे ही नहीं,
इन पर नाम लिखना चाहूँगा,
फिर एक बार,
शुरुआत से शुरू करना चाहूँगा
फिर जीतूंगा,
फिर कई बार हार जाऊँगा,
फिर प्यार अपना न जाता पाऊँगा,
फिर नाराज़ होंगे सब मुझसे,
फिर मैं उन्हें नहीं मनाऊंगा,
फिर दुःख दूंगा उन्हें,
फिर उन्हें रुलाऊंगा,
फिर साथ छोड़ दूंगा
फिर अकेला कर जाऊंगा,
क्यूँ लड़-लड़ के छीनी थी एक सांस
शायद फिर इस बात पर पछताऊंगा
मन में सोच शायद एक दिन मुस्कुरा भी दूं,
अब जो है वो क्या कम है
ये तो मेरा कभी था ही नहीं, वैसे भी
मैं तो मर ही गया था ।
बस एक सांस कहीं से खींच ली,
फिर ज़िन्दगी सींच ली,
ठंडी नीली उँगलियाँ,
नाखून, ना-खून से हो गए थे,
पुतलियाँ नंगी थी, पलकें सिकुड़ गयीं थी,
पर दीखता कुछ न था,
अँधेरा घना सा था,
दांत खडीच लिए थे,
पैर की उँगलियों के सिरे झुक गए थे,
धड़कन के अंदेशे रुक गए थे,
मरने का खौफ़ खुद भी डर ही गया था
मैं तो मर ही गया था ।
बातों को अधूरा छोड़,
बस यादों का चूरा छोड़,
कुछ किताबों को मेज़ पर पड़ा छोड़,
सपनों को हकीकत की देहलीज़ पर खड़ा छोड़,
गाड़ी की चाबी गाड़ी में लगी हुई थी,
कलम, शायद बिना ढक्कन के खुली किताब में पड़ी हुई थी,
शाम की ट्रेन का टिकेट बटुए में रखा था शायद,
इस खून का रंग गुलाल से पक्का है शायद
सोचा नहीं था, तैयार नहीं था,
इसी लिए थोडा, डर ही गया था
मैं तो मर ही गया था ।
पर एक सांस शायद बची थी मेरे नाम की,
हर सांस से ज्यादा वही निकली सबसे ज़्यादा काम की
अब कुछ नहीं बदलेगा,
आँखें खुल जायेंगी
रिश्ते निभ जायेंगे
पर बच नहीं पाऊँगा मैं,
भाग नहीं पाऊँगा,
लोगों को नीचा दिखाना चाहूँगा,
फिर कसौटी पर खरा उतरना चाहूँगा,
कुछ कर गुज़रना चाहूँगा,
लड़ - लड़ के छीनी है एक सांस,
उसे जिस्म में भर कर,
उम्र भर चलाना चाहूँगा,
ये पल मेरे तो थे ही नहीं,
इन पर नाम लिखना चाहूँगा,
फिर एक बार,
शुरुआत से शुरू करना चाहूँगा
फिर जीतूंगा,
फिर कई बार हार जाऊँगा,
फिर प्यार अपना न जाता पाऊँगा,
फिर नाराज़ होंगे सब मुझसे,
फिर मैं उन्हें नहीं मनाऊंगा,
फिर दुःख दूंगा उन्हें,
फिर उन्हें रुलाऊंगा,
फिर साथ छोड़ दूंगा
फिर अकेला कर जाऊंगा,
क्यूँ लड़-लड़ के छीनी थी एक सांस
शायद फिर इस बात पर पछताऊंगा
मन में सोच शायद एक दिन मुस्कुरा भी दूं,
अब जो है वो क्या कम है
ये तो मेरा कभी था ही नहीं, वैसे भी
मैं तो मर ही गया था ।
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