ये वक़्त-ए-बेख़याली है के एहद-ए-वफ़ा को रूह-ए-ज़ौक में शामिल करने की जिद्द है
फितरत-ए-रंजिश है उनकी तो हमें रंज-ओ-बिस्मिल करने की जिद्द है।तिनकों में, लम्हों में थी उम्र-ए-बशर,
लुत्फ़-ए-मौत भी अब तिल तिल करने की जिद्द है ।
तमाम राह थी मंजिल की जुस्तुजू,
अब राह को मंजिल करने की जिद्द है ।
बयाबाँ दश्त-औ-सेहरा सी रूह परेशाँ है
उन्हें बेपर्दा कर क़त्ल-ए-क़ातिल करने की जिद्द है ।
दफतन शानों पर पड़ती लकीरों को
हाथों से घायिल करने की जिद्द है ।
फ़ुरकत का हौवा बना रखा है
साँसों का सबब ग़म-ए-दिल करने की जिद्द है ।
कुर्बत कब्र तक तो ले आई है
मज़ार को हयात के काबिल करने की जिद्द है ।
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